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अध॑ स्मा न॒ उद॑वता सजोषसो॒ रथं॑ देवासो अ॒भि वि॒क्षु वा॑ज॒युम्। यदा॒शवः॒ पद्या॑भि॒स्तित्र॑तो॒ रजः॑ पृथि॒व्याः सानौ॒ जङ्घ॑नन्त पा॒णिभिः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

adha smā na ud avatā sajoṣaso rathaṁ devāso abhi vikṣu vājayum | yad āśavaḥ padyābhis titrato rajaḥ pṛthivyāḥ sānau jaṅghananta pāṇibhiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अध॑। स्म॒। नः॒। उत्। अ॒व॒त॒। स॒ऽजो॒ष॒सः॒। रथ॑म्। दे॒वा॒सः॒। अ॒भि। वि॒क्षु। वा॒ज॒ऽयुम्। यत्। आ॒शवः॑। पद्या॑भिः। तित्र॑तः। रजः॑। पृ॒थि॒व्याः। सानौ॑। जङ्घ॑नन्त। पा॒णिऽभिः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:31» मन्त्र:2 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:14» मन्त्र:2 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सजोषसः) आपस में बराबर प्रीति के निबाहनेवाले (रजः) लोकों के (तित्रतः) पार होते हुए (देवासः) विद्वान् लोगो ! तुम (नः) हमारे (वाजम्) वेग से चलनेवाले (रथम्) विमानादि यान को (विक्षु) प्रजाओं में (अभि,उत्,अवत) सब प्रकार चाहें (अध) इसके अनन्तर जैसे (यत्) जो (आशवः) शीघ्रगामी घोड़े चलते हैं वैसे (पद्याभिः) चलने योग्य गतियों से (पृथिव्याः) भूमि के (सानौ) ऊँचे प्रदेश में (पाणिभिः) हाथों से (स्म) ही (जङ्घनन्त) शीघ्र ताड़ना देओ ॥२॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य हाथों में यन्त्रों को स्थिर कर और ताड़ना देकर इनको चलावें, तो वे घोड़े के तुल्य पृथिवी के ऊपर-ऊपर जाने-आने को समर्थ होते हैं ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे सजोषसो रजस्तित्रतो देवासो यूयं नो वाजयुं रथं विक्ष्वभ्युदवताध यथा यदाशवो गच्छन्ति तथा पद्याभिः पृथिव्याः सानौ पाणिभिः स्म जङ्घनन्त ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अध) अथ (स्म) एव। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः (नः) अस्माकम् (उत्) (अवत) कामयध्वम्। अत्र संहितायामिति दीर्घः (सजोषसः) समानप्रीतिसेवनाः (रथम्) (देवासः) विद्वांसः (अभि) आभिमुख्ये (विक्षु) प्रजासु (वाजयुम्) यो वाजयति वेगेन गच्छति तम् (यत्) ये (आशवः) शीघ्रगामिनोऽश्वाः (पद्याभिः) पत्तुं गन्तुं योग्याभिर्गतिभिः (तित्रतः) तरन्तः। अत्र विकरणव्यत्ययेन शसभ्यासस्येत्वञ्च (रजः) लोकान् लोका रजांस्युच्यन्त इति निरुक्तात् (पृथिव्याः) भूमेः (सानौ) उच्चप्रदेशे (जङ्घनन्त) भृशं हत (पाणिभिः) करैः ॥२॥
भावार्थभाषाः - यदि मनुष्या हस्तैर्यानेषु यन्त्राणि संस्थाप्य हत्वैतानि चालयेयुस्तेऽश्ववत्पृथिव्या उपर्य्युपरि गन्तुमागन्तुं शक्नुवन्ति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे यानात यंत्र स्थिर करून त्याला गती देऊन ती चालवितात, तेव्हा ती याने घोड्याप्रमाणे पृथ्वीवरून वर जाण्यास समर्थ होतात. ॥ २ ॥